अकबर, मुघल साम्राज्य का तीसरा सम्राट था। वह 16वीं सदी में भारत पर शासन करता था। अकबर को मुग़ल साम्राज्य का सबसे महान शासक माना जाता है जिसने अपने शासनकाल में धर्म, साहित्य, कला, और सामाजिक सुधार को प्रोत्साहित किया। उनका शासन 1556 से 1605 तक चला। उनके शासनकाल में भारतीय साम्राज्य की निर्माणकारी योजनाएं, सांस्कृतिक अंधोलन, और धार्मिक समन्वय के लिए प्रसिद्ध हैं। आईए जानते हैं आज के हमारे इसलिए इतने अकबर का इतिहास एवं उनके जीवन के बारे में।
अकबर, जिन्हें “अकबर बादशाह” के नाम से भी जाना जाता है, 1542 में उत्तर प्रदेश के अमरोहा में पैदा हुए थे। उनके पिता हमायूँ और माता हमीदा बानो थे। अकबर का बचपन अस्थायी था, और उन्हें उनके दादा बाबर के मरने के बाद सम्राट बनाया गया।
अकबर ने 13 साल की उम्र में सम्राट की पदवी प्राप्त की, लेकिन उस समय उनका व्यवहार और नेतृत्व क्षमता अधूरा था। अपने शासन के पहले दशक में वे विभिन्न राज्यों के साम्राज्य को जीतने में विफल रहे, लेकिन उन्होंने बाद में अपनी सेना को संगठित किया और भारतीय उपमहाद्वीप पर अपने साम्राज्य को स्थापित किया।
अकबर का शासनकाल धर्मिक सहिष्णुता, विविधता, और कला के प्रोत्साहन के लिए प्रसिद्ध रहा। उन्होंने धर्मिक आपसी समन्वय को प्रोत्साहित किया और सामाजिक सुधारों को बढ़ावा दिया। उनकी मृत्यु 1605 में हुई। अकबर के शासनकाल को मुग़ल साम्राज्य की शांति और समृद्धि का एक स्वर्णिम काल माना जाता है।
अकबर का संक्षिप्त जीवन परिचय
15 अक्टूबर , 1542 ई . को अमरकोट के राजा वीरसाल के राजमहल में अकबर का जन्म हुआ । उसका बचपन उसके चाचा अस्करी तथा उसके बाद कामरान के यहाँ बीता । उस समय हुमायूँ शेरशाह से पराजित होकर इधर – उधर भटक रहा था ।
1551 ई . में हुमायूँ ने मुनीम खाँ के संरक्षण में अकबर को गजनी का गवर्नर नियुक्त किया तथा 1555 ई . में लाहौर का गवर्नर बना दिया । हुमायूँ की मृत्यु होने पर 14 फरवरी , 1556 ई . को बैरम खाँ की देख – रेख में कलानौर में अकबर का राज्याभिषेक किया गया । दिल्ली में हेमू ने मुगल गवर्नर तर्दीबेग खाँ को पराजित कर दिल्ली पर अधिकार कर लिया । बैरम खाँ और अकबर मुगल सेना के साथ दिल्ली की ओर रवाना हुए ।
पानीपत का दूसरा युद्ध ( 1556 ई . ) 5 नवम्बर , 1556 को अकबर ( उसके संरक्षक बैरम खाँ ) और आदिलशाह के वजीर व सेनापति हेमू के मध्य हुए इस युद्ध में हेमू पराजित हुआ तथा उसे में पकड़कर उसकी हत्या कर दी गयी । अकबर ने पुन : दिल्ली में मुगल वंश को पुनर्स्थापित किया ।
हेमू की मृत्यु के पश्चात् बैरम खाँ ने मेवात को विजित कर सारी संपत्ति पर अधिकार कर लिया । 1557 में बैरम खाँ ने सिकन्दर सूरी को पराजित कर मानकोट के दुर्ग पर अधिकार कर लिया तथा बैरम खाँ के संरक्षण में अकबर ने 1558-60 ई . तक अजमेर , जौनपुर तथा ग्वालियर पर अधिकार कर लिया ।
अकबर 1556-60 ई . तक बैरम खाँ के संरक्षण में रहा । इस दौरान बैरम खाँ वजीर रहा । अकबर ने बैरम खाँ को खान – ए – खाना की उपाधि दी । बैरम खाँ ने अकबर की स्थिति को मजबूत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी ।
अकबर के काल में हुए विद्रोह
अब्दुल्ला खाँ , अलीकुली खाँ ( खानजमां ) , आसफ खाँ , बहादुर खाँ , इब्राहिम खाँ , अवध का सूबेदार खाने आलम उजबेग विद्रोह का प्रमुख नेता था । 1564 ई . में मालवा के उजबेग सरदार अब्दुला खाँ का विद्रोह अकबर के काल का पहला विद्रोह था ।
कुछ समय पश्चात् अवध के हाकिम खाने आलम ( इस्कन्दर खाँ ) , जौनपुर के अलीकुली खाँ तथा इब्राहिम खाँ ने भी विद्रोह किया । उजबेगों ने मिर्जा हकीम को बादशाह घोषित कर दिया था । 1567 ई . में अकबर की सेनाओं ने रात्रि में गंगा नदी को पार किया और प्रातः ही उजबेगों पर हमला कर दिया । इसमें अलीकुली खाँ ( खानजमां ) मारा गया ।
सम्भल के मिर्जाओं – सिकन्दर मिर्जा , इब्राहिम मिर्जा , महमूद मिर्जा आदि ने विद्रोह किया । बादशाह के संबंधी होने के कारण ये कुछ विशिष्ट अधिकार चाहते थे । 1573 ई . तक अकबर ने इस विद्रोह को पूर्णतः दबा दिया ।
यूसुफजइयों तथा बलूचियों ने 1585 ई . में अफगानिस्तान में विद्रोह कर दिया । इसे दबाने के लिए अकबर और बीरबल गए । इस संघर्ष में बीरबल विद्रोहियों के हाथों मारा गया । बाद में मानसिंह और टोडरमल ने इस विद्रोह को दबाया ।
शहजादा सलीम ने 1599 ई . में विद्रोह कर दिया तथा बिना आज्ञा अजमेर से इलाहाबाद जाकर एक स्वतंत्र शासक की तरह व्यवहार करने लगा । 1601 ई . में पुनः विद्रोह किया और अपने सिक्के ढलवाए , साथ ही जागीरें बाँटी ।
अकबर ने उसे बंगाल और उड़ीसा का सूबेदार घोषित किया , किन्तु वह इलाहाबाद में ही रहा । सलीम ने ओरछा के वीर सिंह बुन्देला के हाथों अबुल फजल की हत्या करवा दी । 1603 ई . में सलीम ने पुनः विद्रोह किया , किन्तु आगरा पहुँचकर उसने अकबर से क्षमा माँग ली और आगरा में ही रुका रहा ।
सलीम के इन कृत्यों से परेशान होकर उसकी पहली पत्नी मानबाई ( मानसिंह की बहन ) ने आत्महत्या कर ली । इन्हीं परिस्थितियों में 25-26 अक्तूबर , 1605 ई . की मध्य रात्रि को अकबर की अतिसार के कारण मृत्यु हो गयी । उसे आगरा के सिकन्दराबाद के मकबरे में दफनाया गया ।
अकबर के नवरत्न
अबुल फजल – अकबर का मुख्य सलाहकार , जिसने अकबरनामा की रचना की । इसने राजत्व का प्रतिपादन किया । कुछ विद्वान इसे दीन – ए – इलाही का प्रधान पुरोहित मानते हैं । यह शेख मुबारक का पुत्र था।
अब्दुर्रहीम खानखाना– यह बैरम खाँ का पुत्र था , जिसे अकबर ने अपने पुत्र की तरह पाला । इसने बाबरनामा का फारसी में अनुवाद किया । इसने रहीम नाम से हिन्दी साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । यह सलीम का गुरु भी था ।
टोडरमल -शुरू में शेरशाह के साथ रहा तथा इसके निर्देशन में रोहतासगढ़ किले का निर्माण हुआ । यह अकबर का दीवान था । यह भू – राजस्व की दहसाला पद्धति ( जब्ती व्यवस्था ) का प्रवर्तक था ।
मानसिंह – कछवाहा शासक ( आमेर ) भारमल का पौत्र , जिसने अकबर के अनेक सैन्य अभियानों का सफल नेतृत्व किया ।
बीरबल – वास्तविक नाम महेशदास , जन्म 1528 ई . में काल्पी में । अकबर का मित्र , अपनी बुद्धिमता तथा वाक्पटुता के लिए लोक प्रसिद्ध । अकबर ने इसे ‘ राजा ‘ और ‘ कविराज ‘ की उपाधि दी ।
तानसेन – यह महान् संगीतकार पहले ग्वालियर के राजा के दरबार में रहता था । मूलनाम रामतनु पाण्डेय , कालांतर में इस्लाम स्वीकार कर लिया । अकबर ने इसे ‘ कण्ठाभरण वाणी विलास ‘ की उपाधि दी ।
फैजी – उच्चकोटि का कवि एवं साहित्यकार तथा अबुल फजल का बड़ा भाई था । राजकवि के पद पर आसीन , इसकी अध्यक्षता में अनुवाद विभाग की स्थापना हुई । प्रसिद्ध गणित पुस्तक लीलावती का फारसी में अनुवाद किया ।
हकीम – अकबर का घनिष्ठ मित्र एवं शाही पाकशाला का प्रमुख ।
मुल्ला दो प्याजा– हुमायूँ के काल में भारत आया । यह अरब का निवासी था तथा अपनी वाक्पटुता के लिए प्रसिद्ध था । अकबर ने इसे मुल्ला दो प्याजा की उपाधि दी थी ।
अकबर की राजपूत नीति
अकबर ने वैवाहिक संबंध , मैत्री संधि , अधीनस्थ शासन तथा युद्ध द्वारा राजपूतों को अपने पक्ष में किया । उसने अनेक राजपूत योद्धाओं को मनसबदार बनाया ।
वह हिन्दुओं की सहायता से साम्राज्य स्थापित करना चाहता था । उसने 1564 ई . में जजिया तथा 1563 ई . में तीर्थयात्रा कर समाप्त कर दिया । 1562 में उसने जयपुर के राजा भारमल की पुत्री से तथा 1570 ई . में जैसलमेर तथा बीकानेर की राजकुमारियों से विवाह कर राजपूतों को अपने पक्ष में किया । इस संदर्भ में 1585 में शहजादा सलीम का विवाह भगवान दास की पुत्री से किया ।
मेवाड़ ऐसा राजपूत राज्य था , जिसने अकबर की शक्ति की अवहेलना की , अत : अकबर ने मेवाड़ पर आक्रमण किया । इस आक्रमण में राजा मान सिंह तथा अन्य राजपूत राजाओं ने अकबर का साथ दिया ।
अकबर की राजपूत नीति के परिणामस्वरूप श्रेष्ठ राजपूत योद्धाओं का साथ ( अकबर को ) मिला । राजपूत सरदारों ने अकबर के साम्राज्य विस्तार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी । साथ ही , राजपूतों को आर्थिक लाभ मिले । उन्हें अपने प्रदेश जागीर के रूप में प्रदान किए गए , जिन्हें वतन जागीर कहा जाता था । राजस्थान के अतिरिक्त उन्हें इच्छानुसार बाहर भी जागीरें प्रदान की गयीं । इन जागीरों का उनके जीवनकाल में हस्तांतरण नहीं होता था ।
अकबर ने दक्कनी राज्यों में दूत भेजे ताकि वे अकबर की अधीनता स्वीकार कर लें । खानदेश ने सकारात्मक रुख अपनाते हुए मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली । किन्तु , अन्य राज्यों का रुख नकारात्मक रहा । अहमदनगर के शासक बुरहान शाह ने अकबर के दूत का अपमान भी किया ।
1595 ई . में शहजादा मुराद और अब्दुर्रहीम खानखाना के नेतृत्व में मुगल सेना ने अहमदनगर के शासक इब्राहिम आदिलशाह ( बुरहान की मृत्यु के पश्चात् ) को पराजित किया । शासक की संरक्षिका चाँदबीबी संधि करने पर बाध्य हुई । संधि के तहत् मुगलों को बरार प्राप्त हुआ । इसके बाद अहमदनगर के सरदारों ने चाँदीबीबी की हत्या कर दी ।
1602 ई . में अकबर ने खानदेश पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार में ले लिया । यह अकबर की अंतिम विजय थी ।
अकबर की धार्मिक नीति
धार्मिक सहिष्णुता अकबर की धार्मिक नीति का मूल उद्देश्य था । मुनीम खाँ , बायजीद , मुल्लापीर तथा मीर अब्दुल लतीफ जैसे शिक्षकों के प्रभाव से उसने सुलह – ए – कुल ( सार्वत्रिक भाईचारा ) का सिद्धांत सीखा ।
अकबर ने दीन – ए – इलाही ( तौहीद – ए – इलाही ) तथा इबादतखाना की स्थापना की । दीन – ए – इलाही को 1582 में उसने राजकीय धर्म घोषित किया ।
दीन – ए – इलाही या तौहीद – ए – इलाही या तकहीद – ए – इलाही वस्तुत : सभी धर्मों का सार था । अबुल फजल इस धर्म का प्रधान पुरोहित था । हिन्दुओं में केवल बीरबल ने ही इसे स्वीकार किया । प्रत्येक रविवार अकबर लोगों को इस धर्म में दीक्षित ( मुरीद बनाना ) करता था । दीक्षा प्राप्त करनेवाला व्यक्ति अपनी पगड़ी एवं सिर अकबर के चरणों में रखता था तथा सम्राट उसे उठाकर शास्त प्रदान करता था । उस शास्त पर ‘ परम नाम ‘ का अकबर का गुरुमंत्र ‘ अल्लाह – हू – अकबर ‘ अंकित होता था ।
इस धर्म में दीक्षित लोग अपने जन्म दिन पर मांसाहार से परहेज करते थे । धर्म का दरवाजा सभी धर्मों के लोगों के लिए खुला होता था । इस नए धर्म के सहारे अकबर भारत के राजाओं को एक कर अपने प्रति वफादार बनाए रखना चाहता था ।
इबादतखाना में प्रत्येक बृहस्पतिवार को नियमित रूप से धार्मिक विचार – विमर्श होता था । 1578 ई . में इसे सभी धर्मों के लिए खोल दिया गया । इसमें प्रत्येक धर्म के लोग भाग लेते थे ।
इबादतखाना में भाग लेने वाले प्रमुख विद्वान
- हिन्दू विद्वान – पुरुषोत्तम , देवी
- मुस्लिम विद्वान – मुल्ला अब्दुल नबी
- जैन विद्वान -हरिविजय सूरी , जिनचंद्र सूरी
- पारसी विद्वान – दस्तूरजी मेहरजी राणा
- ईसाई विद्वान – एक्वावीवा , मौन्सेरॉट
अकबर ने सितंबर 1579 ई . में समस्त धार्मिक मामलों को अपने हाथ में लेने के लिए एक मजहरनामा व घोषणा – पत्र जारी किया , जिसके तहत् उलेमा की मतभेदों की दशा में अकबर को इमाने आदिल ( प्रधान व्याख्याकार ) के रूप में स्वीकार किया गया तथा उसे अमीर – उल – मोमिनीन कहा गया ।
मजहर के माध्यम से अकबर धार्मिक विषयों पर विवाद की स्थिति में सबसे बड़ा हो गया । उसका निर्णय अंतिम होता था । मजहर – पत्र का प्रारूप शेख मुबारक ने तैयार किया था तथा उसे जारी करने की प्रेरणा स्वयं उसके तथा उसके दोनों पुत्रों अबुल फजल एवं फैजी द्वारा दी गयी थी ।
अक्सर पूछे जाने वाले सवाल
1. अकबर का मकबरा कहां है?
अकबर का मकबरा, जिसे हमें अकबर का मकबरा के रूप में जाना जाता है, उत्तर प्रदेश, भारत में आगरा शहर के पास, सिकंदरा में स्थित है। यह अकबर, मुग़ल साम्राज्य के प्रमुख और एक महान शासक, का स्मारक है। अकबर का मकबरा भारत के ऐतिहासिक धरोहर में महत्वपूर्ण स्थान रखता है और यह एक प्रमुख पर्यटन स्थल है जो लोगों को आकर्षित करता है।
2. अकबर को किसने मारा था?
अकबर की मृत्यु का विषय विवादास्पद है और इसके कई संभावित कारण हैं, लेकिन आमतौर पर माना जाता है कि उनकी मौत आप्रद घायली के कारण हुई थी। उनकी मृत्यु 27 अक्टूबर, 1605 को हुई थी। अकबर की ज़िंदगी के अंतिम दिनों में उन्हें आप्रद बुखार था, जिससे उनकी स्थिति गंभीर हो गई थी। अपने अंतिम दिनों में, उनके चिकित्सकों ने उन्हें खुश रखने के लिए उन्हें दवा दी, लेकिन यह उनकी स्थिति को और भी बिगड़ा दिया। इस घायली के बावजूद, अकबर की मृत्यु की असली कारण बार-बार विवाद का विषय बना रहा है।
3. अकबर की पत्नी का क्या नाम है?
अकबर की पत्नी का नाम “मरियम उज़-ज़मानी” था। वह अकबर की तीसरी पत्नी थी और उनकी विशेषता यह थी कि वह हिंदू धर्म की थी। अकबर और मरियम उज़-ज़मानी की संबंध को बड़े प्रेम और समझदारी से जाना जाता है।
अकबर की चार पत्नियाँ थीं। उनके नाम इस प्रकार हैं:
- रुक़य्या बाईगम
- सालिमा सुल्तान बेगम (जोधा बाई)
- मरियम उज़-ज़मानी (हर्ष बाई)
- लाल कुनवर बेगम (ज़ीनत महल)
4. अकबर का जन्म कहां हुआ था और उनके पिता कौन थे?
अकबर का जन्म 14 अक्टूबर 1542 को उत्तर प्रदेश के उमरावा में हुआ था। उनके पिता का नाम हुमायूं था, जो मुग़ल साम्राज्य के दूसरे बादशाह थे। अकबर उनके बादशाहत का तीसरा और सबसे प्रसिद्ध बेटा था।
5. अकबर के पुत्र का क्या नाम था?
अकबर के पुत्र का नाम “जहाँगीर” था। वह अकबर का उत्तराधिकारी था और मुग़ल साम्राज्य का चौथा बादशाह बना।
6. अकबर ने कितने युद्ध लड़े?
अकबर के शासनकाल में वे अनेक युद्ध लड़े थे। उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों में आपसी टकरावों में भी भाग लिया। अकबर की कुछ प्रमुख लड़ाइयों में है:
- पानीपत की लड़ाई (1526): यह लड़ाई अकबर के पूर्वज बाबर के साम्राज्य को मजबूत करने में महत्वपूर्ण थी।
- हाल्दीघाटी का युद्ध (1576): यह युद्ध राजपूत राजाओं के खिलाफ लड़ा गया था और अकबर की जीत में समाप्त हुआ।
- चितोड़ का युद्ध (1568): इस लड़ाई में अकबर ने चितोड़गढ़ को जीता था।
- हल्दीघाटी का युद्ध (1576): यह लड़ाई राजपूत राजा प्रताप सिंह के साथ हुई थी और अकबर की जीत में समाप्त हुई थी।
- रामसिंह बन्देला के खिलाफ लड़ाई (1562): यह लड़ाई महाराष्ट्र के बगलीपुर (बिर्पुर) में अकबर और मालवी राजा रामसिंह बन्देला के बीच हुई थी।
इसके अलावा, अकबर ने अनेक अन्य युद्धों में भी भाग लिया था जिनमें वह विजयी रहे थे।
7. महाराणा प्रताप और अकबर का युद्ध
महाराणा प्रताप और अकबर के बीच हाल्दीघाटी का युद्ध (1576) एक प्रमुख युद्ध था। इस युद्ध की भूमिका में महाराणा प्रताप, मेवाड़ के राजा, ने अकबर के बराबरी के लिए खड़ा होने का फैसला किया था।
हालांकि, इस युद्ध में अकबर की सेना की संख्या महाराणा प्रताप की सेना की संख्या से कई गुणा अधिक थी। युद्ध के परिणामस्वरूप, महाराणा प्रताप की सेना हारी और वे चितोड़गढ़ में अपने कड़े को ले गए।
यह युद्ध महाराणा प्रताप की शौर्य और साहस की कहानी के रूप में मशहूर है। वे अपनी अदम्य साहस, धैर्य, और संघर्ष के लिए याद किए जाते हैं, जिसके बावजूद वे अकबर के तेज़ सेनापति के खिलाफ अदम्य लड़ाई लड़ते रहे।
8. अकबर का सेनापति कौन था?
अकबर के कई प्रमुख सेनापति थे, लेकिन उनके प्रमुख सेनापति में से एक महत्वपूर्ण सेनापति माना जाता है वह थे राजपुत शूरवीर मानसिंह। मानसिंह ने अकबर के कई महत्वपूर्ण युद्धों में सेना का कमांड लिया और उनकी सेना को अनेक विजयों में मदद की। उन्होंने अकबर की सेना को हल्दीघाटी की लड़ाई में भी अग्रणी भूमिका निभाई थी। उन्होंने अकबर के शासनकाल में बड़ी मात्रा में राजपूतों की असीम साहसिकता और निष्ठा को प्रमोट किया।