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जैन धर्म के सिद्धांत

जैन धर्म भारतीय धर्मों में एक महत्वपूर्ण धर्म है, जिसकी स्थापना महावीर स्वामी ने की थी। इस धर्म में अहिंसा, अपरिग्रह, असत्य को परहित समझने, और साधुता को महत्व दिया जाता है। जैन धर्म में कई प्रकार की व्रतों, तपास्याओं, और ध्यान की प्रथाएं हैं जो मानव जीवन को साधना में सहायक होती हैं।

जैन धर्म एक प्राचीन धर्म है जो भारतीय उपमहाद्वीप की समृद्ध धार्मिक विरासत का हिस्सा है। यह धर्म महावीर स्वामी के शिक्षाओं पर आधारित है, जिन्होंने 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व में जीने का मार्ग प्रशस्त किया। जैन धर्म का उद्भव हिन्दू धर्म से हुआ, लेकिन इसमें कुछ महत्वपूर्ण भिन्नताएं हैं।

जैन धर्म का मूल तत्त्व अहिंसा, अनेकान्तवाद (अनेकता की प्रामाणिकता), और अपरिग्रह (मान संग्रह की अभाव) पर आधारित है। अहिंसा का पालन जैन धर्म के प्रमुख आचार्यों द्वारा किया जाता है, जो अपने जीवन में किसी भी प्रकार की हिंसा से परहेज करते हैं।

जैन धर्म में आत्मा का महत्वपूर्ण स्थान है, जिसे जीव कहा जाता है। इसके अनुसार, सभी जीव जीवात्मा के रूप में समान होते हैं, और उनमें एकता की अपेक्षा होती है।

जैन धर्म में व्रत, तप, और साधना को बहुत महत्व दिया जाता है। संतोष, त्याग, और संयम के लिए व्रत बहुत महत्वपूर्ण हैं। तपास्या और ध्यान द्वारा जीवन को पवित्र और साधनात्मक बनाने का प्रयास किया जाता है।

जैन धर्म में तीर्थंकरों की महत्वपूर्ण भूमिका है, जो समस्त जीवों को मोक्ष की प्राप्ति के लिए मार्गदर्शन करते हैं। महावीर स्वामी इस समय के तीर्थंकर हैं, जिनके शिक्षाएं जैन धर्म की मुख्य आधारशिला हैं।

जैन धर्म में समाज का महत्वपूर्ण अंग भी है। समाज में सामंजस्य, सहयोग, और सहानुभूति की भावना को बढ़ावा दिया जाता है। समाज के सभी अंगों के बीच संतुलन और एकता को बनाए रखने का प्रयास किया जाता है।

संक्षिप्त रूप में, जैन धर्म अहिंसा, अनेकान्तवाद, और अपरिग्रह के सिद्धांतों पर आधारित है, जो जीवन को धार्मिक और साधनात्मक बनाने के लिए आदर्श माने जाते हैं। यह धर्म संतुलित समाज, ध्यान, और सामाजिक न्याय को प्रोत्साहित करता है और मोक्ष की प्राप्ति की ओर मार्गदर्शन करता है।

जैन धर्म के सिद्धांत

जैन धर्म के सिद्धांतों में कई महत्वपूर्ण तत्त्व हैं। यहाँ कुछ प्रमुख सिद्धांतों का उल्लेख है:

  1. अहिंसा (Non-Violence): जैन धर्म का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत अहिंसा है। यह न केवल शारीरिक हिंसा से बचाव करता है, बल्कि मानसिक और अध्यात्मिक हिंसा से भी दूर रहने का समर्थन करता है।
  2. अनेकान्तवाद (Non-Absolutism): यह सिद्धांत कहता है कि सत्य को समझने के लिए हमें अनेक दृष्टिकोणों का ध्यान रखना चाहिए। सत्य का एकमात्र परिपूर्ण दृष्टिकोण नहीं होता, और विविधता में सत्य की प्राप्ति होती है।
  3. अपरिग्रह (Non-Possessiveness): इस सिद्धांत के अनुसार, संग्रह को बाधा माना जाता है। यह धर्म व्यक्ति को संग्रह की इच्छा से मुक्त कराता है और उसे संतुष्ट और अल्पवयस्क जीने की प्रेरणा देता है।
  4. आनेकांतिक दर्शन (Multiplicity of Views): जैन धर्म में, एक विषय को देखने के विभिन्न पहलुओं को समझा जाता है और इसका महत्व दिया जाता है। इससे समझ में विस्तार और सही निर्णय लेने की क्षमता विकसित होती है।
  5. कर्मफल त्याग (Renunciation of Fruits of Action): जैन धर्म में कर्मफल का त्याग करने की प्रेरणा होती है। व्यक्ति को केवल कर्म करने का उत्साह और निष्काम भाव से कार्य करने का संदेश दिया जाता है।
  6. मोक्ष (Liberation): जैन धर्म में मोक्ष का प्राप्ति उच्चतम लक्ष्य है। इसे संसार से मुक्त होकर आत्मा की निजी स्थिति में वापसी के रूप में परिभाषित किया जाता है।

जैन धर्म के ये सिद्धांत धार्मिक जीवन को नियंत्रित करने और आत्मविकास में मार्गदर्शन करने के लिए होते हैं। ये सिद्धांत जैन समाज में सामर्थ्य, संवाद, और सहयोग को बढ़ावा देते हैं, जिससे समृद्धि और शांति की स्थिति प्राप्त होती है।

जैन धर्म के संस्थापक कौन थे?

जैन धर्म के संस्थापक महावीर स्वामी थे। महावीर स्वामी, जिन्हें भी वर्धमान महावीर के नाम से जाना जाता है, भारतीय इतिहास के एक प्रमुख धार्मिक आध्यात्मिक नेता थे। उन्होंने 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व में जैन धर्म की सिद्धांतों को प्रस्थापित किया और इसे एक सम्पूर्ण धार्मिक सिद्धांत के रूप में विकसित किया। महावीर स्वामी को जैन धर्म का 24वां तीर्थंकर माना जाता है, जिनमें से प्रत्येक को धर्म के प्रवर्तक और गुरु के रूप में सम्मानित किया जाता है।

जैन धर्म का इतिहास

जैन धर्म का इतिहास बहुत प्राचीन है और इसका विकास कई संस्कृतियों और कालों के दौरान हुआ है। यहां जैन धर्म के मुख्य घटनाक्रमों का एक संक्षिप्त विवरण है:

  1. तीर्थंकरों का काल (The Era of Tirthankaras): जैन धर्म के इतिहास का प्रारंभ तीर्थंकरों के काल से हुआ, जिनमें महावीर स्वामी अंतिम तीर्थंकर हैं। पूर्वगुप्तकाल में, वर्धमान महावीर के पूर्व तीर्थंकरों ने भी जैन धर्म को प्रवर्तित किया।
  2. श्रमण आंदोलन (Shramanic Movement): जैन धर्म का विकास महावीर स्वामी के समय से पहले के श्रमण आंदोलन के साथ जुड़ा है। इस आंदोलन में भगवान महावीर के पूर्वज भी शामिल थे जो जैन धर्म की शिक्षाओं को प्रचारित करते थे।
  3. ग्रंथों का रचना (Compilation of Scriptures): जैन धर्म के महत्वपूर्ण ग्रंथ जैन आगम हैं, जिनमें तीर्थंकरों की उपदेशों का संग्रह है। ये ग्रंथ विभिन्न भागों में विभाजित होते हैं और जैन धर्म की महत्वपूर्ण स्रोत हैं।
  4. सम्राट अशोक का समर्थन (Patronage by Emperor Ashoka): मौर्य साम्राज्य के सम्राट अशोक ने जैन धर्म का समर्थन किया और उनके समय में जैन धर्म का विस्तार हुआ। उन्होंने धर्म संबंधी शिलालेखों में जैन धर्म की सम्मान की घोषणा की।
  5. वैदिक और बौद्ध परिप्रेक्ष्य (Interactions with Vedic and Buddhist Traditions): जैन धर्म ने वैदिक और बौद्ध धर्म के साथ व्यापारिक संबंध रखे। इसका परिणाम है कि कई धार्मिक विचारों और आचार्यों के बीच विवाद और विचार-विमर्श हुआ।
  6. भारतीय इतिहास में स्थान (Place in Indian History): जैन धर्म ने भारतीय समाज और संस्कृति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसका प्रभाव विभिन्न क्षेत्रों में महसूस होता है, जैसे कि शिक्षा, साहित्य, और कला।

जैन धर्म का इतिहास एक व्यापक और गहरा विषय है जो भारतीय धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा है।

जैन धर्म के संस्थापक महावीर

जैन धर्म के संस्थापक महावीर स्वामी हैं। वे भारतीय इतिहास के एक प्रमुख धार्मिक नेता थे और जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर माने जाते हैं। महावीर स्वामी का जन्म 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व में हुआ था, और उनका वृद्धावस्था में भगवान बुद्ध के समकक्ष काल माना जाता है।

महावीर स्वामी का वास्तविक नाम वर्धमान था, और वे क्षत्रिय जाति से थे। उनके पिता का नाम सिद्धार्थ था और माता का नाम त्रिशला था। महावीर स्वामी ने साधु बनने के बाद 12 वर्ष के तप के बाद ज्ञान की प्राप्ति की और उन्होंने सम्पूर्ण जीवन को ध्यान, तपस्या, और अध्ययन में समर्पित किया।

महावीर स्वामी ने अपने उपदेशों में अहिंसा, अपरिग्रह, और अनेकान्तवाद को महत्व दिया। उन्होंने संसार में धर्म, न्याय, और समृद्धि की प्राप्ति के लिए आदर्श जीवन का मार्ग प्रशस्त किया।

महावीर स्वामी के उपदेशों ने जैन धर्म को एक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है और उन्हें जैन समुदाय के गुरु के रूप में पूजा जाता है। उनकी मृत्यु का दिन महावीर जयंती के रूप में मनाया जाता है, जो जैन समुदाय द्वारा विशेष धार्मिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है।

जैन धर्म की जातियां

जैन धर्म में कोई व्यक्तिगत जाति नहीं होती है। यह धर्म सभी जातियों के लोगों के लिए उपलब्ध है और सभी को बराबरी का दर्जा देता है। जैन धर्म के अनुयायी अपनी समाज में सामाजिक विभाजन के बजाय धार्मिक साधना, सेवा, और शिक्षा के माध्यम से अपने आत्मविकास का मार्ग चुनते हैं।

हालांकि, कुछ लोग शिक्षा, विभाजन और इतिहास के आधार पर जैन समाज को विभाजित करने के लिए जाति शब्द का उपयोग करते हैं, लेकिन यह धार्मिक दृष्टिकोण से सत्य नहीं है। जैन धर्म का मूल सिद्धांत है कि सभी जीवों में समानता है, और इसलिए कोई भी जातिवाद का स्थान नहीं है।

इस प्रकार, जैन धर्म में जातियों का कोई अस्तित्व नहीं है और यह धर्म समाज के सभी वर्गों और जातियों के लोगों के लिए उपलब्ध है।

जैन धर्म के पांच सिद्धांत कौन से थे?

जैन धर्म के पांच मुख्य सिद्धांत इस प्रकार हैं:

  1. अहिंसा (Non-Violence): यह जैन धर्म का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इसके अनुसार, हर जीव के साथ अहिंसा का बर्ताव करना चाहिए, चाहे वह मनुष्य हो या अन्य कोई जीव।
  2. सत्य (Truth): जैन धर्म में सत्य को बहुत महत्व दिया जाता है। यह सिद्धांत कहता है कि हमें हमेशा सत्य का पालन करना चाहिए और झूठ से दूर रहना चाहिए।
  3. अपरिग्रह (Non-Possessiveness): इस सिद्धांत के अनुसार, हमें संग्रह की इच्छा से मुक्त होना चाहिए। यानी, हमें अपनी संपत्ति, सम्बंध, और अधिकारों के प्रति अपनी आसक्ति को संयमित रखना चाहिए।
  4. ब्रह्मचर्य (Chastity): यह सिद्धांत विवाहित और अविवाहित जीवन दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। इसका अर्थ है संभोग से बचना और शुद्धता में रहना।
  5. अनेकान्तवाद (Non-Absolutism): यह सिद्धांत कहता है कि सत्य को समझने के लिए हमें अनेक दृष्टिकोणों का ध्यान रखना चाहिए। एक ही परिस्थिति को अनेक रूपों से देखने का यह अनुशासन जैन धर्म की विशेषता है।

जैन धर्म में अंतिम संस्कार कैसे होता है?

जैन धर्म में अंतिम संस्कार अनुसारित और साधारणतः एक साधारण प्रक्रिया के अंत में संपन्न होता है, जिसमें शव की धार्मिक सांस्कृतिक अवधारणाओं का पालन किया जाता है। यहां अंतिम संस्कार की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताओं का उल्लेख है:

  1. अंतिम दर्शन (Final Viewing): शव के अंतिम संस्कार से पहले, शव को एक अंतिम दर्शन कीजिये जाता है, जिसमें आत्मा को आदेश दिया जाता है कि वह शारीरिक संघर्ष के बाद अगले जन्म के लिए नया शरीर ग्रहण करें।
  2. धूप और दीपक (Incense and Lamp): धूप और दीपक का उपयोग अंतिम संस्कार के दौरान किया जाता है, जो शांति और आत्मा के आनंद के लिए स्थापित किया जाता है।
  3. दान (Charity): अंतिम संस्कार के अवसर पर धन या अन्य दान किया जाता है, जो कि शव की आत्मा को आगामी जीवन में सुख और शांति के लिए सहायक होता है।
  4. अंतिम संस्कार (Final Rites): अंतिम संस्कार में, शव को समाधि में रखा जाता है या फिर अंतिम दफन के लिए समयबद्ध गाड़ी पर ले जाया जाता है। इसके साथ ही मंत्रों और प्रार्थनाओं का पाठ भी किया जाता है।

इस रीति और परंपरा का माध्यम से, जैन धर्म अपने शव को धार्मिक और सामाजिक अवधारणाओं के अनुसार उपयुक्त अंतिम संस्कार प्रदान करता है।

जैन धर्म की उत्पत्ति का इतिहास बहुत प्राचीन है और इसे वेदिक काल के समय से भारतीय सभ्यता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। जैन धर्म के आदिकाल के आचरणों और उपदेशों का उल्लेख वेदों, उपनिषदों, और अन्य प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में पाया जाता है।

जैन धर्म की उत्पत्ति को विभिन्न धार्मिक आचरणों और धार्मिक विचारों के संग्रह के रूप में देखा जा सकता है, जो वैदिक धर्म से विभिन्न थे। जैन धर्म के संस्थापक महावीर स्वामी को भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण धार्मिक नेता के रूप में माना जाता है, जो 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व में जीवन बिताए।

महावीर स्वामी के पूर्व के तीर्थंकरों के उपदेशों का संकलन और प्रचार महावीर स्वामी के समय में हुआ, जिससे जैन धर्म की अस्तित्व में वृद्धि हुई। जैन धर्म ने धार्मिक, सामाजिक, और आध्यात्मिक आधारों पर भारतीय समाज को गहरी प्रभावित किया और एक अलग धार्मिक समुदाय के रूप में स्थापित हुआ।

जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर कौन थे?

जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर का नाम आदिनाथ (Adinath) था, जिन्हें रिषभदेव भी कहा जाता है। वे जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर होते हैं और उन्हें जैन धर्म के आदिगुरु माना जाता है। आदिनाथ का जन्म भारतीय मान्यताओं के अनुसार चक्रवर्ती राजा कोन्धू के राजमहल में हुआ था। उनके जीवन का अवधि एक अद्वितीय और महान कथा के रूप में विभिन्न जैन पुराणों और शास्त्रों में वर्णित किया गया है। उन्होंने अपने जीवन में अनेक महत्वपूर्ण उपदेशों को प्रस्थापित किया, जिनमें अहिंसा, सत्य, तप, त्याग, और अपरिग्रह जैसे महत्वपूर्ण सिद्धांत शामिल थे। वे जैन धर्म के सिद्धार्थ यानी दीर्घदंत के पिता थे और इसी के जन्म से जैन धर्म का आरम्भ हुआ था। आदिनाथ को जैन धर्म का प्रथम तीर्थंकर माना जाता है और उनकी पूजा और आदर की जाती है।

जी हां, सही है। प्रथम तीर्थंकर का नाम रिषभदेव (Rishabhdev) है। उन्हें जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर के रूप में माना जाता है और उनकी पूजा और आदर की जाती है। रिषभदेव को भारतीय मान्यताओं के अनुसार चक्रवर्ती राजा कोन्धू के पुत्र के रूप में जन्मा था। उनके जीवन का विस्तृत वर्णन जैन पुराणों और शास्त्रों में मिलता है, और उनके उपदेशों का महत्वपूर्ण स्थान है जैन धर्म के शिक्षाओं में। उनके जीवन के उपदेशों में अहिंसा, सत्य, तप, त्याग, और अपरिग्रह जैसे महत्वपूर्ण सिद्धांत शामिल थे। रिषभदेव को जैन धर्म के आदिगुरु माना जाता है और उनकी उपासना और आदर की जाती है।

जैन धर्म की स्थापना कब हुई

जैन धर्म की स्थापना की जाने वाली तिथि का स्पष्ट निर्धारण करना कठिन है, क्योंकि इसका इतिहास बहुत प्राचीन है और यह धर्म धार्मिक अनुभवों और प्रथम तीर्थंकर रिषभदेव के समय से विकसित हुआ।

जैन परंपरा के अनुसार, रिषभदेव के समय से ही जैन धर्म की शुरुआत हुई। रिषभदेव को प्रथम तीर्थंकर के रूप में माना जाता है और उनकी उपासना और आदर की जाती है। उनके उपदेशों का महत्वपूर्ण स्थान है जैन धर्म के शिक्षाओं में।

हालांकि, आधिकारिक रूप से, जैन धर्म की स्थापना की तिथि का निर्धारण करने में कई विद्वानों के बीच विवाद है। इसके अलावा, धर्म एक संग्रहण और विकास का परिणाम है जिसमें कई गुरुओं, ऋषियों, और धार्मिक नेताओं का योगदान था। इसलिए, जैन धर्म की स्थापना की तिथि को स्पष्ट रूप से निर्धारित करना मुश्किल है।

जैन धर्म की विशेषताएं

जैन धर्म की कई विशेषताएं हैं जो इसे अन्य धर्मों से अलग बनाती हैं। कुछ मुख्य विशेषताओं में शामिल हैं:

  1. अहिंसा (Non-Violence): अहिंसा जैन धर्म का मूल और प्रमुख सिद्धांत है। इसके अनुसार, हर जीव के साथ अहिंसा का बर्ताव करना चाहिए।
  2. अनेकान्तवाद (Non-Absolutism): जैन धर्म में अनेकान्तवाद का सिद्धांत है, जो कि सत्य को अनेक दृष्टिकोणों से देखने की प्रेरणा देता है।
  3. अपरिग्रह (Non-Possessiveness): अपरिग्रह का सिद्धांत यहां धार्मिक और सामाजिक आदर्श के रूप में निर्दिष्ट है, जो संग्रह की इच्छा से मुक्ति का प्राप्तिकरण साधना करता है।
  4. जीवन की प्रशांति और सुख के मार्ग: जैन धर्म में आत्मशुद्धि, आनंद, और शांति के मार्ग की विशेष उपेक्षा की जाती है।
  5. अनुषासनिक जीवनशैली: जैन संतों और साधुओं का जीवन अत्यंत संयमित और आध्यात्मिक शिक्षा पर आधारित होता है।
  6. करुणा और दया: जैन धर्म में संतों के सम्मान में, सेवा और दया की प्रथा अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
  7. उपासना और ध्यान: जैन धर्म में उपासना और ध्यान की अत्यधिक महत्वपूर्णता है, जो आत्मा की शुद्धि और आध्यात्मिक विकास के लिए महत्वपूर्ण है।

ये कुछ मुख्य विशेषताएं हैं जो जैन धर्म को अन्य धर्मों से अलग बनाती हैं।

जैन धर्म के नियम

जैन धर्म के अनुयायियों को विभिन्न नियमों और आचरणों का पालन करना होता है जो उनके आध्यात्मिक और नैतिक विकास में मदद करते हैं। कुछ प्रमुख नियमों में निम्नलिखित शामिल हैं:

  1. अहिंसा (Non-Violence): अहिंसा जैन धर्म का मूलनियम है, जिसके अनुसार जैन अनुयायी किसी भी प्राणी के साथ हिंसा नहीं करते।
  2. सत्य (Truthfulness): सत्य का पालन जैन धर्म में महत्वपूर्ण है, और शिक्षाओं के मुताबिक जैन अनुयायी हमेशा सत्य का पालन करते हैं।
  3. अपरिग्रह (Non-Possessiveness): जैन अनुयायियों को संग्रह की इच्छा से मुक्ति का प्राप्तिकरण साधना करने के लिए अपरिग्रह का पालन करना होता है।
  4. ब्रह्मचर्य (Chastity): ब्रह्मचर्य का मानना होता है कि जैन साधकों को अपने जीवन में संभोग से परहेज करना चाहिए।
  5. अनेकान्तवाद (Non-Absolutism): अनेकान्तवाद के सिद्धांत के अनुसार, जैन अनुयायी विभिन्न दृष्टिकोणों का समर्थन करते हैं और सत्य को समझने की प्रेरणा देते हैं।
  6. वेगिलंभ (Fasting): जैन साधकों के लिए उपवास करना और विभिन्न आहारिक विवेक के साथ भोजन करना भी महत्वपूर्ण है।
  7. प्रतिक्रमण (Forgiveness): प्रतिक्रमण का पालन भी जैन धर्म में महत्वपूर्ण है, जिसके अनुसार अपने शत्रुओं और दुश्मनों को क्षमा करना चाहिए।

ये कुछ मुख्य नियम हैं जो जैन अनुयायियों को आचरण करने के लिए प्रेरित करते हैं।

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