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International Day of the World’s Indigenous People – विश्व आदिवासी दिवस

हर साल 9 अगस्त को पूरी दुनिया भर में विश्व आदिवासी दिवस के रुप में मनाया जाता है। आदिवासी आबादी के अधिकारों को बढ़ाने और उनकी सुरक्षा के लिए हर साल 9 अगस्त को दुनिया भर में विश्व आदिवासी या अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस मनाया जाता है। हम विश्व आदिवासी दिवस क्यों मनाते हैं? इसके पीछे का क्या इतिहास है? इन सभी विषयों पर आज के हमारे इस लेख में चर्चा करने वाले हैं। International Day of the World’s Indigenous People – विश्व आदिवासी दिवस

अंग्रेजों के समय में अंग्रेज एक शब्द नेटिव (Native) का इस्तेमाल करते थे जिसका अर्थ था मूल निवासी। लेकिन अंग्रेजों द्वारा एक और शब्द का भी इस्तेमाल किया गया जिससे वह ट्राईबल (Tribal) कहते थे। लेकिन जिस का मूल अर्थ मूलनिवासी नहीं होता है। 9 अगस्त को विश्व जनजातीय दिवस कब मनाया जाता है। विश्व जनजाति दिवस ज्ञानी की विश्व की सभी जनजातियों का दिवस है।

जनजाति को आदिवासी भी कहते हैं आदिवासी अर्थात जो प्रारंभ से यहां रहता आया है। आदिवासी को बनवासी से जोड़कर भी देखते हैं लेकिन इसका एक अर्थ यह भी निकलता है कि वन में रहने वाले वनवासी। 400 पीढ़ियों पूर्व वन में तो सभी भारतीय रहते थे लेकिन विकास के कारण पहले ग्राम बने फिर कस्बे और आखिर में नगर बने। इस तरह से लोग कस्बे और आखरी में शहर में बस गए।

विश्व में आदिवासी समुदाय की जनसंख्या लगभग 37 करोड़ के आसपास है। जिसमें लगभग 5000 अलग-अलग आदिवासी समुदाय है और इनकी लगभग 7000 भाषाएं हैं। आदिवासी समाज के उत्थान और उनकी संस्कृति व सम्मान को बचाने के लिए हर साल 9 अगस्त को अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस के तौर पर मनाया जाता है। आज के हमारे इस लेख में हम इस बारे में जानकारी लेंगे कि इसके पीछे का इतिहास क्या है?

International Day of the World’s Indigenous People – विश्व आदिवासी दिवस

विश्व भर में लगभग 90 से भी अधिक देशों में आदिवासी समुदाय के लोग रहते हैं। इन की कुल जनसंख्या विश्व भर में लगभग 37 करोड़ के आसपास है। जिसमें से लगभग 5000 अलग-अलग आदिवासी समुदाय है। जिनमें 7000 से भी अधिक भाषाएं है।

इतनी बड़ी आबादी होने के बावजूद भी आदिवासी लोग अपनी संस्कृति, अस्तित्व और सम्मान बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। हालांकि, दुनिया भर में नस्लभेद, रंगभेद और उदारीकरण जैसे कई कारणों की वजह से आदिवासी समुदाय के लोग अपना अस्तित्व और सम्मान बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

भारत के झारखंड राज्य में कुल आबादी का लगभग 28% आदिवासी समाज के लोग हैं। जिनमें संथाल, उराँव, मुंडा, वीर होरो, गोंड, लोहरा इत्यादि समूह के लोग शामिल है। यह आंकड़े केवल झारखंड राज्य के हैं। इनके अलावा भी अन्य राज्यों में भी आदिवासियों की जनसंख्या मौजूद है।

यही कारण है कि आदिवासी समाज के उत्थान और संस्कृति वह सम्मान को बचाने के अलावा आदिवासी जनजाति को बढ़ावा देने व उनको प्रोत्साहित करने के लिए हर साल 9 अगस्त को अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस (International Day of the World’s Indigenous People) मनाया जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस का इतिहास – History of World’s Indigenous People

दुनिया भर में सबसे पहली बार अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा साल 1994 में घोषित किया गया था। जिसके बाद हर साल 9 अगस्त को दुनिया भर में विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाता है।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने बस उसके आगे आदिवासी समुदाय उपेक्षा, बेरोजगारी एवं बंधवा बाल मजदूरी जैसी समस्याओं से ग्रसित है। इन समस्याओं को सुलझाने एवं आदिवासियों के मानव अधिकारों को लागू करने के लिए संरक्षण के लिए वर्ष 1982 में एक कार्य दल का गठन किया गया था इस कार्य दल का नाम वर्किंग ग्रुप ऑन इंडिजिनियस पापुलेशन (UNWGIP) रखा गया था।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने 9 अगस्त 1982 को आदिवासी की हितों की रक्षा के लिए एक बैठक की थी। 11 में अधिवेशन में संयुक्त राष्ट्र संघ आदिवासी समुदाय के संघर्ष की कहानी और समस्याओं को संयुक्त राष्ट्र संघ ने महसूस किया।

इसके बाद 23 दिसंबर वर्ष 1994 को एक संकल्प पत्र निकाला गया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने यह निर्णय लिया कि विश्व के स्वदेशी लोगों के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस विश्व के स्वदेशी लोगों के अंतरराष्ट्रीय दशक के दौरान हर साल 9 अगस्त को मनाया जाएगा।

यह तारीख 1982 में मानव अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण पर उपयोग की स्वदेशी आबादी पर संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह की पहली बैठक का दिन है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने उसी समय विश्व के सभी सदस्यों को प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस (International Tribal Day) मनाने का निर्देश दिया।

भारतीय राज्यों में आदिवासी समुदाय की जनसंख्या का प्रतिशत

पूरे विश्व में आदिवासियों की कुल जनसंख्या लगभग 37 करोड़ के आसपास है। जो अपने रीति-रिवाजों और संस्कृति को बचाए रखने के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं। हड़प्पा संस्कृति और मोहनजोदड़ो की खुदाई में पाए गए बर्तन में आज भी आदिवासी समुदाय के लोग खाना खाते हैं। भारत में आदिवासी का संविधानिक नाम अनुसूचित जनजाति है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल आदिवासियों की संख्या 10.45 करोड़ जो भारत के जनसंख्या का 8.6% है।

भारत के प्रमुख आदिवासी समुदाय में संथाल, मुंडा, बोडो, भील, उराँव, लोहरा, खासी, मीणा, गोंड, खड़िया, इत्यादि जन जातियां शामिल है।

आदिवासी समुदाय और पर्यावरण

आदिवासी जिन्हें अक्सर जनजाति, वन पुत्र आदि नामों से जाना जाता है। इस चलते इन्हें इस धरती का सबसे पुराना साथी भी कहते हैं जिन्होंने प्रकृति को अपना मां समान समझा और जल, जमीन की रक्षा के प्राण के साथ अपना जीवन भी निछावर किया है।

आदिवासी जंगल में निवास करने वाली जनजातीय समुदाय है जंगली उसका परिवार है । जंगली जानवर को भी वे अपने परिवार का एक अटूट हिस्सा मानते हैं। प्रकृति से प्राप्त संसाधनों से ही वे अपने जीवन निर्वाह करते हैं लेकिन प्रकृति से उतना ही लेते हैं जितना की जरूरत होती है। साथ ही वृक्षारोपण करना, बागवानी, फसल पैदा करके सामंजस्य बनाए रखते हैं।

औद्योगिकरण व तकनीकी युग से पहले तक पर्यावरण की स्थिति बहुत सुरक्षित थी लेकिन विज्ञान की युग में पर्यावरण का बुरी तरह से खनन किया है। हमारे पर्यावरण को बचाने के लिए इस आदिवासी समुदाय की एक बहुत ही बड़ी भूमिका रही है।

प्रकृति को अपनी मां मानने वाले, और जल, जंगल और जमीन को भगवान का दर्जा देने वाले आदिवासियों ने सदियों से बिना किसी स्वार्थ के इनकी रक्षा की है। आदिवासियों के जीवन में जल, जंगल और जमीन का विशेष महत्व रहा है।

आदिवासी अनादि काल से जंगलों में समुदाय बनाकर के रहते आ रहे हैं। वन संरक्षण की प्रबल प्रवृत्ति के कारण यह वन और वन्य जीवो से उतना ही प्राप्त करते हैं जितना की जरूरत हो, जिससे उनका जीवन सुलभता से चल सके वह आगामी पीढ़ी को भी वन स्थल धरोहर के रूप में दिया जा सके।

आदिवासियों के शादी से लेकर के प्रत्येक त्यौहार पेड़ों को साक्षी मानकर के पूर्ण किए जाते हैं। आदिवासियों के वैवाहिक समारोह में सेमल के पत्तों का होना विशेष रस्म माना जाता है। आदिवासी जंगलों से जड़ी बूटियों का संग्रह, फूल, फल और पत्ते, सब्जियां संग्रहण इत्यादि करते आ रहे हैं।

आदिवासी की इस बात को समझते हैं कि प्रकृति जंगल उगाए नहीं जा सकते हैं, खुद बनते हैं। आदिवासियों ने अपने सामाजिक व्यवस्था के तहत कुछ बंदी से स्वयं पर लगा रखी है इन बसों के तहत महुआ, आम, करंज, जामुन, इत्यादि पेड़ नहीं काटते हैं। वह जलावन के लिए हमेशा सूखे पेड़ ही काटते हैं इसलिए जहां आदिवासी है वहां जंगल बचे हुए हैं वह जहां वे वही है।

आदिवासियों की वजह से ही जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से हमारी यह धरती बची हुई है। उनके द्वारा जल, जंगल और जमीन के संरक्षण से वातावरण शुद्ध बना हुआ है जो कि नियमित वर्षा, स्वच्छ जल, स्वच्छ वायु, उपजाऊ जमीन सहित संसाधनों की उपलब्धता के लिए अति आवश्यक है।

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